पाटा नैनीताल जिले के रामगढ़ ब्लॉक का एक गांव है जिसके मूल ग्राम पंचायत सतबूंगा है। सतबूंगा ग्राम सभा में पाटा, सकार, लोधिया और कापुवा गांव आते हैं। यह रामगंगा बेसिन (या बड़े जलागम) का क्षेत्र है जो शारदा जलागम से लगा हुआ है और यहाँ की भोगोलिक-पर्यावरणीय-परिस्थितिकी लगभग मिलती जुलती है। सतबूंगा का अर्थ है सात पवित्र चोटियों वाला उपजाऊ भू-भाग। सतबूंगा ग्राम सभा की वन पंचायत नैनीताल जिले की सबसे बड़ी वन पंचायत है। 850 हेक्टेयर का भू-भाग यहां के लोगों /निवासियों की पुश्तैनी विरासत है और यहां के लोगों की ईधन, चारा, कृषि यंत्र,पशुओं के लिए बिछावन की जरूरतों को पूरा करती है। वर्तमान में इस के सरपंच श्री गंगा सिंह हैं जो पाटा में रहते हैं। यहाँ फल और सब्जी उत्पादक क्षेत्र है यहां से सेब, आड़ू, पुलम, नाशपाती के अलावा मटर, गोभी, आलू, बीन्स की फसल होती है।

पाटा के साथ ही गल्ला ग्राम पंचायत है जिसके पास 150 हेक्टेयर की वन पंचायत है, गल्ला छोटी ग्राम सभा है और पाटा  सतबूंगा  से इसके  खेत तथा जंगल की सीमाएं मिली हुई हैं। गल्ला फल, सब्जी उत्पादक गांव है।  इस क्षेत्र की तीसरी छोटी ग्राम पंचायत लोद है,जो वन पंचायत विहीन है। यहां के निवासी गल्ला  और पाटा के जंगलों पर अधिक निर्भर रहते हैं। इस क्षेत्र का सबसे बड़ा गांव सूपी है जहां 350 हेक्टेयर वन पंचायत है। जिसकी कुछ सीमा सतबूंगा से मिलती है। सूपी रामगढ़ ब्लॉक की सबसे बड़ी ग्राम सभा है। यहां 10 से अधिक गांव-तोक, इंटर कॉलेज, चार प्राथमिक विद्यालय और छह आंगनवाडी है। 2 क्षेत्र पंचायत सदस्य चुने गए हैं। सूपी अनाज, फल, सब्जी का बड़ा उत्पादक गांव है। सूपी के पास आरक्षित वन क्षेत्र का बड़ा भू-भाग है। इन सभी जंगलों में बांज, बुरांश, काफल, खरसू समेत, चौड़ी पत्ती वाले पेड़ हैं। इसके अलावा इन जंगलों में बेशकीमती जड़ी बूटियां पाई जाती हैं।

चीड़ के जंगल बढ़ रहे हैं और सालाना अधिकतर इन्हीं वनों में आग लगती है। अधिक चीड़ के जंगल होने से जैव-विविधता न के बराबर होती जा रही है। इन जंगलों में वन्य-प्राणियों, पक्षियों, कीट, मृगों के रहने खाने और प्रजनन करने के लिए वनस्पति आवरण खत्म हो चुका है। साथ ही खुले जंगल वन्य प्राणियों के सुरक्षित पनाहगाह नहीं हैं।

इन तमाम कारकों के चलते वन्यजीव सघन वनों तथा मानव बस्तियों में भोजन व पेयजल के लिए आने लगे हैं फिर वहीं पर अपनी निर्भरता बना लेते हैं। सघन वनों, नदी तटों तथा सुरक्षित पनाहगाहो में मानव हस्तक्षेप अत्यधिक बढ़ा है। सड़कों, नई बसावटों ने वन्य जीवों को अत्यधिक असुरक्षित बना दिया है। इसके चलते उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष तीव्र हो गया है। सरकारी संरक्षण की नीतियों ने वन्य प्राणियों के लिए कई सुरक्षित स्थान तैयार किए हैं परंतु वन्य प्राणियों के भोजन, जल, प्रजनन और प्रवास की व्यवस्थाएं करने में आयोजन निष्फल साबित हो चुके हैं।

उनकी खेती को बंदर, सूअर, साही बर्बाद कर रहे हैं। सीमित आबादी में बाघ का आतंक रहने लगा है, जिसके कारण पलायन को और बढ़ावा मिला है। उत्तराखंड की अधिकांश वन भूमि विभाग के पास है। खासतौर पर उत्तराखंड के खेतों की जोतें बिखरी, असिंचित और खाने कमाने के लिए पर्याप्त नहीं है, इसलिए सदियों से लोग पलायन कर रहे हैं लेकिन यह पलायन पुरुषों द्वारा सीमित समय के लिए होता है। गांव में महिलाओं बच्चों के साथ रहती हैं क्योंकि दूध अनाज फल-सब्जियों का स्वयं उत्पादन कर लेती हैं।

पलायन पूरे परिवार के साथ पूरी तरह से इन 17 वर्षों में अधिक हुआ है। इसके पीछे एक बड़ा कारण वन्य प्राणियों द्वारा लोगों की फसलों को पूरी तरह खत्म कर देना रहा है। लोगों, जनसंगठनों, जिम्मेदार लोगों ने इस समस्या को सरकार के हर एक स्तर पर सुलझाने का आग्रह किया। सरकार और उसके विभाग अपनी मौलिक सोच की कमी, रुडिगत निर्णय लेने के तरीके तथा वैश्विक व्यापारिक दृष्टिकोण की साजिश के चलते ऐसे कोई उपाय नहीं खोज पाए जिससे वन्य प्राणियों के द्वारा खेती किसानी को हो रहे नुकसान को कम किया जा सकता था।

पलायन अनाज उत्पादक गावों से अधिक हुआ है। ये कार्य धन से नहीं मन से ही किया जा सकता है। पूरे हिमालय का अपना परितंत्र अभी खतरे में पड़ गया है। उसके साथ ही मूल निवासियों, मूल जंगलों और मूल जल स्रोतों पर भी हमला हुआ है। इसे समझना ज़रूरी है। ये भी कि जंगल लगाने से अधिक बचाने से अपने को पनपा सकते हैं। जंगल नदी का मायका है। किसी महिला को पसंद नहीं है कि दिन-रात जंगलों में जाकर लकड़ी घास चारा काटना पड़े। ये पारिवारिक मजबूरी है। अब उत्तराखंड के मूल निवासियों को थोड़ा अपनी पहचान और अस्मिता को लेकर अधिक समझदार और जागरूक होने की ज़रूरत है। हिमालय फिर से सूखे की चपेट में आ गया है। अब हरेक नदी में पानी घटने लगा है। हमारे फल पट्टी के किसान बागवान मटर की खेती भी करते हैं। मटर भी इतनी महंगी है कि यदि समय पर पानी नहीं मिला तो लागत वसूली भी मुश्किल हो जाएगी। समझदार बागवानों ने अपने लिए जल संचय टँक बना लिए हैं। जिनके पास टँक हैं, उनको कोई खास परेशानी नहीं हो रही है। कुछ ने तो 60 से 70 हज़ार लीटर पानी का संचय कर लिया है। जो लोग सरकारी कार्यक्रमों के भरोसे हैं या फिर अभी भी आलस से भरे हैं, उनकी हालत खराब होने वाली है। अब बरसात की ओर मुंह ताक कर रोने वाले लोगों के लिए मुसीबत लाज़मी है। मेहनतकश लोगों को कायर की तरह किसी के आने के इंतज़ार में देखना दुखद है। कोई बाहर से आकार हमारे लोगों के लिए आजीविका और बुनियादी संसाधनों की व्यवस्था नहीं कर सकता है। गाँव की धूल और मिट्टी से सने लोग धरती के असली नायक हैं। अपने पर विश्वास करके जब पानी जंगल खेती और जन के लिए सृजन होगा तो स्वाभिमान जगता है। आत्मविश्वास फल पट्टी के अलावा उस हरेक व्यक्ति को ज़रूरी है जो बरसों से राज और समाज की अवहेलना का शिकार हुए हैं। हिमालय का पानी,जंगल, ज़मीन, खेती हमारी है। यहाँ के लोग अपनी मेहनत से इसे सजा सकते हैं और बादल सकते हैं। बहुत से ऐसे कार्य शेष हैं, जिनको किया जाना इसलिए ज़रूरी है ताकि पहाड़ में आबादी जीवित रह सके।

Author – बच्ची सिंह बिष्ट